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यु॒ष्माकं॑ स्मा॒ रथाँ॒ अनु॑ मु॒दे द॑धे मरुतो जीरदानवः। वृ॒ष्टी द्यावो॑ य॒तीरि॑व ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuṣmākaṁ smā rathām̐ anu mude dadhe maruto jīradānavaḥ | vṛṣṭī dyāvo yatīr iva ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒ष्माक॑म्। स्म॒। रथा॑न्। अनु॑। मु॒दे। द॒धे॒। म॒रु॒तः॒। जी॒र॒ऽदा॒न॒वः॒। वृ॒ष्टी। द्यावः॑। य॒तीःऽइ॑व ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:53» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:11» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (जीरदानवः) जीवते हुए (मरुतः) मनुष्यो ! मैं (युष्माकम्) आप लागों के (मुदे) आनन्द के लिये (रथान्) विमान आदि यानों को (दधे) धारण करता हूँ और (वृष्टी) वर्षाओं तथा (द्यावः) प्रकाशों को (यतीरिव) प्रयत्न से सिद्ध होनेवाली क्रियाओं के समान (स्मा) ही (अनु) पीछे आनन्द के लिये धारण करता हूँ ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे मैं अभ्यास से विद्या के प्रकाशों को यज्ञ से वृष्टि को धारण करता हूँ, वैसे आप लोग भी इनको धारण कीजिये ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कि कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे जीरदानवो मरुतोऽहं युष्माकं मुदे रथान् दधे वृष्टी द्यावो यतीरिव स्माऽनु मुदे दधे ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युष्माकम्) (स्मा) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (रथान्) विमानादियानान् (अनु) (मुदे) हर्षाय (दधे) दधामि (मरुतः) मनुष्याः (जीरदानवः) जीवन्ति ते (वृष्टी) वर्षाः (द्यावः) प्रकाशान् (यतीरिव) प्रयत्नसाध्या क्रिया इव ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यथाहमभ्यासेन विद्याप्रकाशं यज्ञेन वृष्टिमनु दधे तथा यूयमप्येतान् धत्त ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जसा मी अभ्यासाने विद्येद्वारे यज्ञाने वृष्टीचा स्वीकार करतो तसे तुम्ही करा. ॥ ५ ॥